दोहा


– दोहा –

मास एक सूतक कहूं, रजस्वला दिन पांच ।
जो इनको पालै नहीं, लगै धर्म की आंच ।।1।।
प्रात:काल ऊठणों, उसी समय को स्नान ।
याविधि जो वरते सदा, होत जहां तहां मान ।।2।। 
शील संतोष पालन करैं , उज्ज्वल राखौ अंग ।
बाहर भीतर एकरस, कहै मुनिजन संग ।।3।।
दोनों काल सन्ध्या करैं , शमन करै मन धीर ।
इन्द्रिय गण को रोकनों, दम भाषत बुध वीर ।।4।।
सायं काल में जायके, ढूढे निर्जन देश ।
विष्णु नाम रसना जपे, लोग करै आदेश ।।5।।
दत्तचित्त से हो म करै, राखौ बहुत आचार ।
मन में धारै विष्णु को, तब उतरै भवपार ।।6।।
वाचा निशदिन बोलिये, सत्य सहित सुन वीर ।
जन्म मरण से छूटकर, बनो आप गम्भीर ।।7।।
पानी पी तू छानकर, निर्मल बाणी बोल ।।
इन दोनों का वेद में, नहीं मोल कुछ तोल ।।8।।
समिधा लीजै दे खाकर, कृमी बचाकर बीर ।।
स्थावर जंगम आत्मा, देखौ सकल शरीर ।।9।।
चोरी निन्दा झूठ को, तजियो सभ्य सुजान ।
क्षमा दया उर धारिके, पहुंचो पद निर्वाण ।।10।।
शुष्क वाद नहिं कीजिये, मनु बतायो जोय ।
श्रद्धा लज्जा धारके, सुख पाओ सब कोय ।।11।।
सुने बहुत उपवास में, इनमें नहीं कुछ सार ।
व्रत अमावस को सही, कियो वेद निरधार।।12।।
व्रत अमावस के किये, मल विक्षेप को नाश ।
मल विक्षेप के नाशन तैं, होतहि बुद्धि प्रकाश ।।13।।
इनके खण्डन की दवा, तुझे बताई जोय  ।।
याके राखे जगत में, बहुरि न आना होय ।।14।।
ओ३म् विष्णु-2 जपते रहो, जब लग घट में प्रान ।
इसी नाम के जपन तै, मिलै श्री विष्णु भगवान ।।15।।
जीव दया नित पालणी, सदाचार यह जाण ।
तन मन आत्म वस करैं, पहुंचै पद निर्वाण ।।16।।
हरा वृक्ष नहीं काटना, यह सब का मन्तव्य ।।
रक्षा में तत्पर रहै, जान यही कर्तव्य ।।17।।।
अजर काम अरु क्रोध है, अजर लोभ को जान ।
इनको जो निशदिन जरै, सो पावै सन्मान ।।18।।
संस्कार से रहित जन, सो वह शुद्र समान ।
पाहल दीजै ताहिं को, कीजै ब्रह्म समान ।।19।।
तिसके हाथ का अन्न-जल, अशन करो सब वीर ।
अथवा अपने हाथ से, पाक बनाओ धीर ।।20।।
छेरि भेड़ी आदि को, पर उपकारी मान ।
रक्षा में तत्पर रहै, सोई बुद्धिमान ।।21।।
इनसे अधिक जूं बैल है, परउपकारी जोय ।
ताको बधिया नहीं कर, ब्रह्मवेत्ता है सोय ।।22।।
भांग तमाखू छो तरा, इनका कीजे त्याग ।
मद्यमांस को त्याग के, कर ईश्वर अनुराग ।।23।।।
स्वेताम्बर धारण करें, नहीं नीलाम्बर होय ।
धर्म कहै उनतीस ये, धारै वैष्णव सोय ।।24।।

-: छन्द :-

जंभ ब्रह्म सनातनं, गुरु एक सच्चित जानियों ।
जगद्वन्द्य पुरातनं, जगदीश निश्चय भानियो ।।
जंभ विष्णु विष्णु जंभ जी, यामें भेद न ठानियो ।
श्रीजंभ गुण गाते हुए, दोषो को निशदिन भानियों ।