सबद-107
ओ३म् सहजे शीले सेज बिछायों । उनमन रह्या उदासूं ।। जुगे जुगन्तर भवे भवन्तर । कहों कहांणी कासूं ।। रवि ऊगा जब उल्लू अन्धा । दुनियां भया उजासूं ।। सतगुरु मिलियो सतपंथ बतायो भ्रांत चुकाई । सुगरां भयो बिसवासूं ।। जां जां जांण्यो तहां प्रवाण्यो । सहज समाणो। जिहिं के मन की पूगीं आसूं ।। जहां गुरु न चीन्हों पंथ न पायो । तहां गल पड़ी परासूं ।।१०७।।