सबद-105
ओ३म् आप अलेख उपन्ना शिंभू। निरह निरंजन धंधूकारूं ।। आपै आप हुआ अपरंपर । नै तद चन्दा नै तद सूरूं ।। पवण न पाणी धरती आकाश न थीयों ।। नातद मास न वर्ष न घड़ी न पहरूं । धूप न छाया ताव न सीयों ।। | न त्रिलोक न तारामंडल । मेघ न माला वर्षा थीयों ।। न तद जोग नक्षत्र तिथि न बारसीयो । ना तद चवदश पूनो मावसीयो ।। नै तद समद न सागर न गिरि न पर्वत । ना धौलागिर मेर थीयों ।। ना तद हाट न बाट न कोट न कसबा । बिणज न बाखर लाभ थीयों ।। यह छत धार बड़े सुलतानो । रावण राणा ये दिवाणा हिन्दू मुसलमानू ।। दोय पंथ नाहीं जूवा जूवा । ना तद कामन करसण जोगन दर्शन ।। तीर्थ वासी ये मसवासी । ना तद होता जपिया तपिया। न खच्चर हींवर बाज थीयों ।। ना तद शूर न वीर न खड़ग न क्षत्री ।। रण संग्राम न जूझ न थीयों ।। ना तद सिंह न स्यावज मिरग पंखेरूं । हंस न मोरा लेल सूवो ।। रंग न रसना कापड़ चोपड़ । गोहूं चावल भोग थीयों ।। माय न बाप न बहण न भाई । नातद होता पूत धीयों ।। सास न सबदूं जीव न पिंडू ना तद होता पुरूष त्रियों ।। पाप न पुण्य न सती कुसती । ना तद होती मया न दया ।। आपै आप ऊपनां शिम्भू । निरह निरंजन धन्धू कारूं ।। आपो आप हुआ अपरंपर । हे राजेन्द्र लेह विचारूं ।।१०५।।