सबद-101


सबद-101

ओ३म् नितही मावस नित संकरांति। नितही नवग्रह वैसें पांति ।। नितही गंग हिलोले जाय । सतगुरु चीन्है सहजै न्हाय ।। निरमल पाणी निरमल घाट । निरमल धोबी मांड्यो पाट ।। जेयो धोबी जाणै धोय । घर में मैला वसत्र रहै न कोय ।। एक मन एक चित साबण लावै । पहरंतो गाहक अति सुख पावै ।। ऊंचै नीचे करै पसारा । नाहीं दूजे का संचारा । तिल मैं तेल पहुप मैं बास । पांच तंत मैं लियो  प्रकाश ।। बिजली कै चमकै आवै जाय । सहज शून्य मैं रहै  समाय।। नैं यो गावै न यो गवावै । सुरगे जाते बार न लावै ।। सतगुरु ऐसा तंत बतावै । जुग जुग जीवै बहुर न आवै ।।१०१।।