शब्द 1.
ओ३म् गुरु चीन्हों गुरु चीन्ह पुरोहित । गुरु मुख धर्म बखाणीं ।। जो गुरु होयबा सहजे शीले सबदे नादे वेदे तिहिं गुरु का आलिंकार पिछाणी।। छव दरशण जिहिं के रूपण थापण, संसार बरतण निज कर थरप्या। सो गुरु प्रत्यक्ष जाणी।। जिहिं कै खर तर गोठ निरोत्तर वाचा । रहिया रूद्र समाणी । गुरु आप संतोषी अवरां पोखी । तंत महारस बाणी।। के के अलिया बासण होत हुताशण । तामैं खीर दुहीजें।। रसूवन गोरस घीय ने लीयूं । तहां दूध न पाणी ।। गुरु ध्याईये रे ज्ञानी तोड़त मोहा। अति खुरसाणी छीजत लोहा । पांणी छल तेरी खाल पखाला। सतगुरु तोड़े मन का साला।। सतगुरु है तो सहज पिछाणी। कृष्ण चरित बिन काचै करवै रह्यो न रहसी पाणी ।।१।।